Friday, December 14, 2007

परिचय

तुम जानो या ना पहचानो, पर मुझको पाओगे हर पल.
कभी फूल कभी पंखुडियों मे, कभी पत्तियों की आभा पर.
हर दिवस निशा संध्या तुमको, मेरा भान कराएंगी.
सौ बार मिली जिस मिटटी मे, वो भूल कहाँ मुझे पाएँगी.
घोर तिमिर मे कभी निशा की साथी बन जाती हूँ मैं.
फिर प्रातः किरणों का उजास बन, सविता का संग निभाती हूँ मैं.
बादलों का रूप धरकर, नदियों का अभिसार बनी
कभी बूंद बन बरखा की प्यासी धरती पर आन गिरी.
प्रेम क्रोध कभी नफ़रत मे, समायोजित होता रूप मेरा
अंतर्मन के भावों मे, नवरस मे बंधा स्वरूप मेरा.
सागर मंथन से प्रकट हुई जो, मैं वो अमृत-हाला भी.
शिव ने जिसका पान किया, मदिरा साकी मधुशाला भी.
मैं मरी, जी उठी, फिर मरकर कितने ही जन्म लिए.
सृष्टि का विविध श्रृंगार बन न जाने कितने रूप धरे.
लघु वृत्त मे व्योम का विस्तार बनकर.समाई हू मैं ही,
विकल शून्य का झंकार बनकर
मैं कौन हू क्या परिचय मेरा, हर जन्म मे ख़ुद का मान हू मैं
मानो तो ईश्वर की एक कृति, ना मनो तो अनजान हू मैं.