Tuesday, September 27, 2011
तन माटी का, मन बरखा
सागर के प्रेमालिंगन में
भू-मानिंद समाने को
ढूंढ़ रही कोई ठौर-ठिकाना
देह जरा सुस्ताने को
जनम जनम जल रूह सखी
सौ बार बनी 'कुंदन' परखा
तन माटी का, मन बरखा ...
ज्यों सांसों का चूल्हा जलता
धुआं धुआं हर साँझ-सबेरा
रह जानी सब 'पीड़' यहीं है
सुख की गठरी, दुःख का फेरा
उम्र वीरानी, बहता पानी
कात रही जीवन चरखा
तन माटी का, मन बरखा ...
Wednesday, March 2, 2011
कीमत
दीदी ने कहा था कि -'घबराओ मत, मैं हूं ना। समय आने पर सब संभाल लूंगी। मां को मना लूंगी कि वो सत्यम को अपने दामाद के रूप में अपना ले। अपने प्यार पर और मेरे विश्वास पर भरोसा रखो।' लेकिन आज दीदी भी मौन खड़ी थी। मां को मनाना तो दूर, उलटे वो मंजरी और सत्यम के रिश्ते की खिलाफत पर उतर आई थी। 'मंजरी , अपनी जिद के आगे मां की जान मत लो। और कितना छलोगी मां को। वैसे भी बहुत धोखा किया है तुमने उसके साथ। अब तो उसे चैन से जी लेने दो। ये प्यार-व्यार कुछ भी नहीं होता। भाग्य में जिसके साथ जुड़ना लिखा होता है, उसके साथ ही जीवन की डोर बंधती है। और शादी के बाद प्यार भी हो जाता है। बाकी सारी बातें बकवास हैं। उनका कोई मतलब नहीं है।'
शायद दीदी अपनी जगह सही थीं। पर मंजरी का क्या? उसने तो सिर्फ और सिर्फ सत्यम से प्यार किया था, बहुत प्यार और उस प्यार पर किसी दूसरे का अधिकार इस जनम में तो नहीं हो सकता। जमाने की नजरों में सत्यम से प्यार कर उसने भले ही गुनाह किया हो, पर वो जानती है कि सत्यम का प्यार उसके लिए जिंदगी का अनमोल तोहफा है। वो फैसला कर चुकी थी कि सत्यम के सिवा कोई और उसकी आत्मा तो क्या उसके शरीर तक भी नहीं पहुंच सकता। चाहे इसकी कोई भी कीमत उसे चुकानी पड़े।
शादी के जोड़े में सजी मंजरी एक बेजान लाश से ज्यादा कुछ भी नहीं थी। ना चेहरे पर हंसी और न ही शादी की कोई रौनक। अस्पताल में मौत से जूझ रही मां की जान बचाने के लिए ब्याह के समझौते को उसने स्वीकार जो किया था। मां की खुशी और जिंदगी के लिए अपनी जान न्यौछावर करने में मंजरी ने उफ तक नहीं की। सत्यम के लिए खुद से किया वादा भी याद था उसे। उसके मन, शरीर और आत्मा पर सिर्फ सत्यम का अधिकार है और वो इस जनम में यह हक किसी और को नहीं सौंप सकती।
मंजरी की विदाई के बाद मां के साथ ही सभी घरवालों ने राहत की सांस ली। अंत भला, तो सब भला। चाहे जैसे भी, पर घर की इज्जत बच गई। पापा के नाम का सम्मान बच गया। समाज यह नहीं कह पाया कि देखो मां-पापा ने पढ़ने और नौकरी करने घर से बाहर क्या भेजा,बेटी ने तो गुल ही खिलाने शुरू कर दिए। दूसरे जात के लड़के से इश्क लड़ाकर खानदान का नाम ही डूबा दिया। पर ये क्या, सुकून के इस पल को मोबाइल की एक रिंग ने बेचैनी से भर दिया। मंजरी के सुसराल से फोन था-'आपकी बेटी अब इस दुनिया में नहीं है। पता नहीं उसे क्या हुआ, सुबह शरीर ठंडा पड़ा था। हाय, दुख का कौन सा पहाड़ हमारे परिवार पर टूट पड़ा। मंजरी की लाश पोस्मार्टम के लिए अस्पताल ले गए है। आपलोग जल्दी से आ जाइए।'
Sunday, June 21, 2009
ये मेरे हिस्से का सच है
आँखों में किरचों जैसे
कुछ ख्वाब लगे है चुभने
जीवन के इन्द्रधनुष के सारे
रंग लगे हैं उड़ने
पल भर में सब टूटे रिश्ते
किसको किसकी गरज है
ये मेरे हिस्से का सच है
वो कहते हैं नजर नजरिया मेरा
बदल गया है इतना
जो कल था जो आज है उसमे
फर्क है क्या और कितना
भेद न कोई अन्तर जाने
इतनी छोटी हुई समझ है
ये मेरे हिस्से का सच है
दिल के अंधियारे कोने में
कई राज़ छिपे हैं गहरे
मौन बना अब साथी जिनका
अश्कों के हैं पहरे
उन यादों को बिसरा दे मन
बस इतनी अरज है
ये मेरे हिस्से का सच है
Sunday, March 8, 2009
लाडो
मा मैं तेरी लाडो एक बात बताओ अम्मा
समझ न आए मुझको तुम समझाओ अम्मा
मुख मेरा देख देख कर क्या सोचा करते थे बाबा
मैं वंश नही हू उनका ये क्यो कहते थे बाबा
क्यो मेरे जनम से पहले ही मुझे मारने की तैयारी थी
क्यो साँसे देने को मुझको तुमने जान अपनी बारी थी
मैने पहली बार कदम जब तेरे जीवन मे रखा था
खोलकर अधखुले नयन ममता का अमृत चखा था
क्यों तुम खुश होकर भी अम्मा आँखों मे आँसू लाती थी
मेरे बारे मे सोच सोच कर क्यो इतना घबराती थी
बाबा की उंगली थाम कर जब मैने चलना सीखा था
क्यो अपने घर से परिचय मेरा अनजाने सरीखा था
क्यो भाई के जैसे बाहर मैं खेल नही सकती थी मा
क्यो मुझको लेकर दादी से तुम इतना डरती थी मा
क्या तुमको याद है अम्मा जब पढ़ने की ज़िद की थी मैने
कैसा था कोहराम मचा जब बढ़ने की ज़िद की थी मैने
बैठ कर खिड़की पर घंटो जो देखा करती थी अंबर मे
चिड़ियों सी उड़ाने की इच्छा जगती थी मेरे अंतर मे
एक बार जो मेरे मन मे था मैने तुमसे कह डाला था
बाहों मे लेकर अपनी तब तुमने मुझे सभाला था
बाबा को मनाने की हां कोशिश की थी तुमने आख़िर
पर क्यो इतनी मजबूर थी मा तुम मेरे सपनो की खातिर
फिर इधर उधर की बातों से मेरा ध्यान हटाने को
मा क्यो तुमसे कहा गया मुझे घर का काम सिखाने को
बस यू ही फिर धीरे धीरे बीत गई सब घड़िया
तुमने मुझको विदा किया पहना तारों की लड़िया
क्यो जाते जाते आशीष दिया अगले ज़नम जो आऊ मैं
बेटी नही बनकर बेटा तेरा भाग्य सजाऊ मैं
अपनी लाडो से मिलने एक बार कभी जो आओ अम्मा
इन सारी बातों का मतलब मुझको बतलाओ अम्मा
मा मैं तेरी लाडो एक बात बताओ अम्मा
समझ न आए मुझको तुम समझाओ अम्मा
Sunday, March 9, 2008
आधा-अधूरा
सृष्टि की सम्पूर्णता मैं, आधी क्यों पहचान मेरी।
हौसले परवान पर, फिर भी आधी उड़ान मेरी।।
आधी दुनिया, आधी जमीं, आधा फलक मेरा जहां।
मेरे हिस्से मे ही क्यों, आधा-अधूरा सब यहां।।
आधी आबादी कहकर ये दुनिया, देती मुझे आवाज है।
आधे पहर में सिमटे ज्यों, ख्वाबों के परवाज हैं।।
आधी की अधिकारिणी मैं, आधी क्यों दास्तान मेरी ।
सृष्टि की सम्पूर्णता मैं, फिर भी आधी पहचान मेरी।।
Friday, December 14, 2007
परिचय
कभी फूल कभी पंखुडियों मे, कभी पत्तियों की आभा पर.
हर दिवस निशा संध्या तुमको, मेरा भान कराएंगी.
सौ बार मिली जिस मिटटी मे, वो भूल कहाँ मुझे पाएँगी.
घोर तिमिर मे कभी निशा की साथी बन जाती हूँ मैं.
फिर प्रातः किरणों का उजास बन, सविता का संग निभाती हूँ मैं.
बादलों का रूप धरकर, नदियों का अभिसार बनी
कभी बूंद बन बरखा की प्यासी धरती पर आन गिरी.
प्रेम क्रोध कभी नफ़रत मे, समायोजित होता रूप मेरा
अंतर्मन के भावों मे, नवरस मे बंधा स्वरूप मेरा.
सागर मंथन से प्रकट हुई जो, मैं वो अमृत-हाला भी.
शिव ने जिसका पान किया, मदिरा साकी मधुशाला भी.
मैं मरी, जी उठी, फिर मरकर कितने ही जन्म लिए.
सृष्टि का विविध श्रृंगार बन न जाने कितने रूप धरे.
लघु वृत्त मे व्योम का विस्तार बनकर.समाई हू मैं ही,
विकल शून्य का झंकार बनकर
मैं कौन हू क्या परिचय मेरा, हर जन्म मे ख़ुद का मान हू मैं
मानो तो ईश्वर की एक कृति, ना मनो तो अनजान हू मैं.
Friday, November 30, 2007
जाने माने पत्रकार करण थापर को बेस्ट करंट अफेयर प्रेसेंटर के लिए एशियन टेलीविजन अवार्ड से नवाजा गया है. उन्हें यह पुरस्कार सिंगापुर मे आयोजित एक समारोह मे प्रदान किया गया.
थापर को पिछले नौ वर्षों मे तीसरी बार यह पुरस्कार दिया गया है. करण इन दिनों एक टीवी चैनल पर डेविल एडवोकेट नाम से एक प्रोग्राम का संचालन करते हैं.