तन माटी का, मन बरखा ...
सागर के प्रेमालिंगन में
भू-मानिंद समाने को
ढूंढ़ रही कोई ठौर-ठिकाना
देह जरा सुस्ताने को
जनम जनम जल रूह सखी
सौ बार बनी 'कुंदन' परखा
तन माटी का, मन बरखा ...
ज्यों सांसों का चूल्हा जलता
धुआं धुआं हर साँझ-सबेरा
रह जानी सब 'पीड़' यहीं है
सुख की गठरी, दुःख का फेरा
उम्र वीरानी, बहता पानी
कात रही जीवन चरखा
तन माटी का, मन बरखा ...
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