तन माटी का, मन बरखा ...
सागर के प्रेमालिंगन में
भू-मानिंद समाने को
ढूंढ़ रही कोई ठौर-ठिकाना
देह जरा सुस्ताने को
जनम जनम जल रूह सखी
सौ बार बनी 'कुंदन' परखा
तन माटी का, मन बरखा ...
ज्यों सांसों का चूल्हा जलता
धुआं धुआं हर साँझ-सबेरा
रह जानी सब 'पीड़' यहीं है
सुख की गठरी, दुःख का फेरा
उम्र वीरानी, बहता पानी
कात रही जीवन चरखा
तन माटी का, मन बरखा ...
Tuesday, September 27, 2011
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