है अधिकार मुझको भी जन्म लेने का,
अपनी कोंख में मुझको पनाह दे दो मां।
सृष्टि के रचयिता की इस अनुपम कृति की,
मैं भी बन सकूं साक्षी वो राह दे दो मां।।
पिता की थाम कर ऊंगला मैं चलना सीखूंगी,
बैठ बाबा के कांधे पर देखूंगी जहां सारा।
सजा कर भाई की सूनी कलाई रेशम के धागे से,
दादी मां की आंखों का बन जाऊं मैं तारा।।
रिश्तों के माधुर्य़ से पुलकित हो जो बगिया,
अपने मातृत्व की वही ठंडी छांव दे दो मां
सृष्टि के रचयिता की इस अनुपम कृति की,
मैं भी बन सकूं साक्षी वो राह दे दो मां।।
हैं अरमान कुछ मेरे,सजाए स्वप्न नयनों ने,
मगर डर है कहीं ये ख्वाब न रह जाएं अधूरे।
जो लोग कहते हैं नहीं मैं वंश तेरी मां,
टिकी है मुझ पर अब उनकी विषभरी नजरें।।
बना लो अंश मुझको अपने कोंमल ह्दय का अपनी
तान्या को बस इतना अधिकार दे दो मां।।
सृष्टि के रचयिता की इस अनुपम कृति की ,
मैं भी बन सकूं साक्षी वो राह दे दो मां।।
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3 comments:
नियति बहुत भावपूर्ण और मर्म भेदी कविता. मुझे अपनी लिखी एक कविता याद आ गई.....
न तोड़ो, खिल जाने दो
इस जग में पहचान बनाने दो।
खिलने दो खुशबू पहचानो ----
ब्लोगजगत में आपका स्वागत है. सुन्दर भावपूर्ण रचना के लिये बधाई.
भावपूर्ण!!
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